Thursday, November 13, 2008

यादें

क्यूँ रातों की नींदें उड़ी हुयी हैं,
क्यूँ दिन में भी मन भटक रहा है
न जाने कब भुला पाऊंगा मैं
उन बीते हुए दिनों की तर्पाती यादें

वह दिन जिन में खो गया मेरा बचपन
बिन उगे ही ढल गया किशोरावस्था का सूरज
बुजुर्गो के पापों के बोज में दब के
कराहती रही जीवित रहने की कोशिश में जवानी

इस कदर दब गए दिलों के हजारों अरमान
की सिसकियाँ भी न निकल सकी जबान से
क्यूँ लिखी गई थी ऐसी हमारी किस्मत
की सुख-चैन का कहीं नम-ओ-निशाँ नही है

हर दिन जीवित रहने का संघर्ष
हर रात ख्वाबों में तर्पाती यादें
क्या कभी भुला पाऊंगा मैं वोह
गुज़रे हुए कल की दर्दनाक यादें

कभी-कभी तो लगता है
काश न मिली होती यह यादाश्त
जिसमे बस्ती और पनपती हैं यादें

--Sergeant

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