Saturday, November 15, 2008

ख्वाबों की मल्लिका
सारी रात मेरे ख़्वाबों में आती हो क्यों?
आकर मेरी नींदें चुराती हो क्यों?
हर पल तुम्हारी याद सताती है मुझे,
तुम्हारी यादें मुझे इतना सताती हैं क्यों?

कल सारी रात तुम मेरे ख़्वाबों में आई,
बंद पलकों में इस तरह समाई,
कि ऐसा लग रहा था मेरे साथ हो तुम
काश उसी तरह मेरे सदा मेरे पास रहो तुम

जागा मैं न जाने कितनी बार कल रात
इस कोशिश में कि पकड़लूँ तुम्हारा हाथ
बहुत समझाया मन को कि नही हो करीब तुम
पर क्या करू दिलो-दिमाग पर इस कदर छाई हो तुम

-- सरित गुहा ठाकुरता

Disclaimer: The above poem was written sometime in August 2003 when I was posted at a sub-station in Satna, M.P. when I was working with ABB. The poem was written off the cuff as I and another friend amongst the four of us were just thinking what to do when we were supposed to have a presentation :)

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