तुम…
मेरे ख्वाबों में तुम ही तुम हो,
मेरे ख्यालों में तुम ही तुम हो,
जब भी अपने दिल में झांकता हूँ,
रह जाता हूँ तुम्हारी यादों में गम हो…
न जाने ऐसा क्या देखा है तुम में,
और कुछ देखने की चाहत नही है,
न जाने ऐसा क्या पाया है तुम में,
और कुछ पाने की ख्वाइश नही है…
इस कदर मेरे दिल-ओ-दिमाग पर छाई सी तुम हो,
कि मेरे अस्तित्व में समायी सी तुम हो,
तुम्हारे प्यार में मेरा यह हाल है अब,
कि मेरे जीवन का मायने भी तुम हो…
इस कदर तुमसे प्यार करने लगा हूँ,
कि अपने आप से बिछड़ने लगा हूँ,
अब यह हाल है, मेरी जान,
कि तुमसे दूर रहने पर डरने लगा हूँ…
मोहब्बत में मेरी जान यह हाल है अब,
तुमसे दूर रहना भी बेहाल है अब,
मरने से कम नही है मेरे लिए अब,
तेरा मुझसे दूर जाने का ख्याल भी अब…
मेरी जीवनी अगर लिखी जाए कभी तो,
उसका आदि भी तुम हो, उसका अंत भी तुम हो,
शब्दों में नही है ताक़त-ऐ-बयान इतनी,
सिर्फ़ इतना है कहना की मेरा जीवन ही तुम हो…
-- सरित गुहा ठाकुरता
Epilogue: Written on a tram trip in Zurich in 2004. Before any speculations are made about the protagonist, I would like to make it clear that there was no one particular in my mind at the time of writing this... Probably this is an ode written in advance for the love of my life...
Thursday, November 13, 2008
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