ज़मीन…
ज़मीन को न देखो,
ज़मीन का क्या है,
वोह तो बंट-टी रही है,
वोह बंट-टी रहेगी.
ज़माने भर से चली आ रही है यह दास्तान,
ज़माने तक चलती रहेगी यह कहानी,
ज़मीन को न देखो,
ज़मीन का क्या है.
पूछना चाहूँगा मैं इस ज़माने के नेताओं से
लकीरें खीच के ज़मीन पे
जो पैदा करते हैं दिलो में नफरत,
क्या हम सभी भाई, बंधू, रिश्तेदार नहीं हैं?
आदम और हव्वा हमारे पूर्वज नहीं हैं?
और अगर हैं तो क्या यह सही है,
भाई को भाई की जान का दुश्मन बनाना
ज़मीन पे खींची लकीरों को लहू से सींचना?
क्या इंसानियत इतनी गर्क में गिर चुकी है
कि इंसान ही सबसे खतरनाक पशु है?
ज़मीन को न देखो,
ज़मीन का क्या है,
ज़मीन ने बनाया है
आदमी को पशु ही.
Sergeant
Epilogue: Written on flight while returning from Boston on July 21, 2002.
Thursday, November 13, 2008
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