Sunday, March 22, 2009

रुकी हुई है ज़िन्दगी इंतज़ार में
ना जाने कब आयेंगे दिन बहार के
कब तक बने रहेंगे खिलौने दूसरों के हाथ में
कब होगी हमारे जीवन की डोरी स्वयं अपने हाथ में
बीत गई है ज़िन्दगी बेकार की दौड़ में
बहती जा रही है ज़िन्दगी मझधार में
चलते-चलते रुक गए कदम इस सोच में
कहाँ लेकर जा रही है ये भीड़ हमें
रफ़्तार-ऐ-ज़िन्दगी है इतनी तेज़ की
वक्त ही नही मिलता की नज़रों का दीदार कर सकें

-- सरित गुहा ठाकुरता

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